Kumbh Mela mixed reactions from the locals of Prayagraj
प्रयागराज: कुंभ मेला, जिसे दुनिया के सबसेबड़े धार्मिक आयोजन के रूप में जाना जाता है, ने एक बार फिर प्रयागराज को आध्यात्मिक उत्साह का केंद्र बना दिया है। करोड़ों तीर्थयात्रियों का जुटान गंगा, यमुना और सरस्वती के पावन संगम तक देखने को मिल रहा है। हालांकि, यह आयोजन सांस्कृतिक विरासत को तो उजागर करता है, लेकिन स्थानीय निवासियों के लिए यह जीवन में अराजकता भी लाया है। यह लेख प्रयागराज के लोगों के नजरिए से कुंभ मेले के बहुआयामी प्रभाव को समझने की कोशिश करता है।
भीड़भाड़ और बुनियादी ढांचे पर दबाव
कुंभ मेले के विशाल पैमाने ने शहर के बुनियादी ढांचे को चरमरा दिया है। संकरी गलियां, जो सामान्य दिनों में स्थानीय गतिविधियों से भरी रहती हैं, अब तीर्थयात्रियों, वाहनों और अस्थायी दुकानों से अटी पड़ी हैं। रिक्शा चालक रमेश कुमार कहते हैं, “2 किलोमीटर का सफर तय करने में घंटों लग जाते हैं। एम्बुलेंस तक फंस जाती है, जिससे जान जोखिम में पड़ जाती है।” सार्वजनिक परिवहन में देरी और सड़क बंदी ने लोगों की परेशानियां बढ़ा दी हैं। सुरक्षा प्रोटोकॉल के चलते स्कूल और बाजार भी अनियमित समय पर खुल रहे हैं।
स्वच्छता और स्वास्थ्य संकट
नदी तटों पर फैले अस्थायी शिविरों के बीच स्वच्छता एक बड़ी चिंता बनकर उभरी है। कूड़ेदानों से निकलता कचरा और शौचालयों की कमी ने हालात बिगाड़े हैं। दरागंज की निवासी गृहिणी मीना देवी बताती हैं, “बदबू असहनीय है, और मक्खियां हर जगह हैं। हमें डर है कि हैजा जैसी बीमारियां फैल सकती हैं।” स्वास्थ्य केंद्रों में सांस और पेट संबंधी बीमारियों के मरीजों की संख्या बढ़ी है, जिसका कारण प्रदूषित हवा और दूषित पानी बताया जा रहा है।
आर्थिक विरोधाभास: मुनाफा और नुकसान
जहां मेला क्षेत्र के नजदीक होटल मालिक और दुकानदार मुनाफा कमा रहे हैं, वहीं दूर के छोटे व्यवसायी मुश्किलों में हैं। सिविल लाइन्स में कपड़ों की दुकान चलाने वाले प्रकाश गुप्ता कहते हैं, “ग्राहक ट्रैफिक जाम के डर से हमारे इलाके से दूर भागते हैं। हमारी बिक्री में 40% की गिरावट आई है।” वहीं, सब्जियों और दूध जैसी जरूरी चीजों की कीमतों में उछाल ने घरेलू बजट को प्रभावित किया है। कॉलेज छात्रा आयशा खान कहती हैं, “दूध एक लीटर अब 10 रुपये महंगा हो गया है। यह अनुचित है।”
पर्यावरणीय क्षति
पर्यावरणीय गिरावट भी गहराती नजर आ रही है। सफाई अभियानों के बावजूद गंगा में प्लास्टिक कचरे और धार्मिक अनुष्ठानों के अवशेष बढ़े हैं। पर्यावरण कार्यकर्ता अरविंद मिश्रा कहते हैं, “मेले के बाद नदी तट कूड़े के ढेर जैसा दिखता है।” लाउडस्पीकरों और यातायात के लगातार शोर ने शांति छीन ली है। बुजुर्ग निवासी श्याम लाल कहते हैं, “शोर से सिरदर्द होता है। चैन की सांस लेना मुश्किल है।”
प्रशासन की प्रतिक्रिया: क्या है उम्मीद की किरण?
स्थानीय अधिकारी चिकित्सा शिविरों का विस्तार, कचरा प्रबंधन और ट्रैफिक डायवर्जन जैसे उपायों का हवाला देते हैं। लेकिन निवासी इन्हें अपर्याप्त मानते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता कविता सिंह कहती हैं, “शौचालय तो बनाए गए, लेकिन रखरखाव नहीं है। प्रशासन सक्रिय नहीं दिखता।”
प्रयागराज के लोगों के लिए कुंभ मेला गर्व और संघर्ष दोनों का प्रतीक है। आयोजन की धार्मिक महत्ता को तो कोई चुनौती नहीं देता, लेकिन टिकाऊ योजना की मांग जोर पकड़ रही है। शिक्षिका अंजली वर्मा के शब्दों में, “हम तीर्थयात्रियों का स्वागत करते हैं, लेकिन शहर की भलाई की कीमत पर नहीं। संतुलन जरूरी है।” अब उम्मीद यही है कि भविष्य में परंपरा और आधुनिकता के बीच तालमेल बनाकर कुंभ की विरासत को अराजकता से बचाया जा सके।